मंगलवार, 30 अगस्त 2011

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http://www.lekhni.net/613228.html

युवक कवि नारी-सौंदर्य पर भी मुग्ध हुआ , कवि अपनी कल्पना की सुन्दरी बाला से स्पष्ट कहता है कि प्रकृति की अनंत सुषमा को छोड़कर मैं तेरे मांसल सौंदर्य की सीमा में अपने को कैसे बांध सकता हूँ?

छोड़ द्रुमों की मृदुल छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया

बाले! तेरे बाल-जाल में, कैसे उलझा दूं लोचन।

तज कर तरल तरंगों को, इन्द्रझनुष के रंगों को;

तेरे भ्रू भंगों में कैसे, बिंधवा दूं निज मृग सा मन।।

2 टिप्‍पणियां:

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

यह कवि नासमझ है शायद, इसे कभी औलाद की नेमत हासिल नहीं हो सकती जब तक कि अपनी सोच से तौबा न करे और औरत को अपने जीवन में जगह न दे।

हा हा हा
कवि भी न, बस कुछ भी कह देता है, इसकी बात को सीरियसली नहीं लेना चाहिए।

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

धन्यवाद शिखा जी !