शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

नूतन वर्ष २०१२ की हार्दिक शुभकामनाये !

                       Happy New Year
New Year 2012 WallpapersHappy New Year
''ये  ब्लॉग  अच्छा  लगा  '' के  सभी  सम्मानित  योगदानकर्ताओं  व्  पाठकों  को  नूतन  वर्ष २०१२  की  हार्दिक  शुभकामनाये  ! 
Happy New YearHappy New Year
              ''शुभ  हो  आगमन  
                 अति  शुभ  हो  आगमन  
              खिलखिलाकर  पुष्प  कहते  हैं  
             सुनो  श्रीमन  !
              शुभ  हो  आगमन  ;
               अति  शुभ  हो  आगमन  ''


                                          शिखा कौशिक 
                                    शालिनी कौशिक 

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

Wishing you a very...very...very prosperous new year 2012

आप सभी को नए साल २०१२ की मुबारकबाद .
मालिक हम सबको हर मुसीबत से बचाए और हरेक नेकी का रास्ता दिखाए ताकि हमारा अंजाम अच्छा हो.
आमीन .

अब कुछ अच्छे संदेसे

Something in your smile which speaks to me,
Something in your voice which sings to me,
Something in your eyes which says to me,
That you are the dearest to me.
“Happy New Year”


Another day, another month, another year.
Another smile, another tear, another winter.
A summer too, But there will never be another you!
Wishing a very HAPPY N BLESSED New Year to You!!


We will open the new book.
Its pages are blank.
We are going to put words on them ourselves.
The book is called Opportunity
and
its first chapter is New Year's Day.


When the mid-nite bell rings tonight..
Let it signify new and better things for you,
Let it signify a realisation of all things you wish for,
Wishing you a very...very...very prosperous new year.


Like birds, let us, leave behind what we don’t need to carry…
GRUDGES, SADNESS, PAIN, FEAR and REGRETS.
Life is beautiful.. Enjoy it.
HAPPY NEW YEAR


Beauty..
Freshness..
Dreams..
Truth..
Imagination..
Feeling..
Faith..
Trust..
This is begining of a new year!

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

तो फिर कह दो कि ईश्वर नहीं है....नहीं है.....नहीं है....!!


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
   बहुत दिनों से दुनिया के तरह-तरह के धर्मग्रंथों-दर्शनशास्त्रों,धर्मों की उत्पत्ति-उनका विकास और भांति-भांति के लोगों द्वारा उनकी भांति-भांति प्रकार की की गयी व्याख्यायों को पढने-समझने-अनुभव करने की चेष्टा किये जा रहा हूँ,आत्मा-ईश्वर-ब्रह्माण्ड,इनका होना-ना होना,अनुमान-तथ्य-रहस्य-तर्क, तरह-तरह के वाद-संवाद और अन्य तरह-तरह विश्लेषण-आक्षेप तथा व्यक्ति-विशेष या समूह द्वारा अपने मत या धर्म को फैलाने हेतु और तत्कालीन शासकों-प्रशासकों द्वारा उसे दबाने-कुचलने हेतु किये गए झगडे-युद्द यह सब पता नहीं क्यों समझने-समझाने से ज्यादा मर्माहत करते हैं,मगर किसी भी प्रकार एक विवेकशील व्यक्ति को ये तर्क मनुष्य के जीवन में उसके द्वारा रचे गए अपने उस धर्म-विशेष को मानने की ही जिद का औचित्य सिद्द करते नहीं प्रतीत होते !! 
          धर्म की महत्ता अगरचे मान भी लें तो किसी एक वाद या धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु किये गए,किये जा रहे युद्दों का भी औचित्य समझ से परे लगता है,अगर यही है धर्म, तो धर्म हो ही क्यों ??     
           धरती पर तरह-तरह के मनुष्यों द्वारा तरह-तरह का जीवन बिठाये जाने के आधार पर पूर्वजन्मों के औचित्य....किसी नालायक का ऐश-विलास-भोग आदि देखकर या किसी लायक का कातर-लोमहर्षक जीवन देखकर कर्म-फल-श्रृंखला और कर्मफलों का औचित्य.....सिद्द किया जाता है !! यानी कि जो कुछ हमें तर्कातीत प्रतीत होता है,उसे हम रहस्यवादी बातों द्वारा उचित करार दे दिया करते हैं और मुझे यह भी अजीब लगता है कि कोई वहशी-हरामखोर-लालची-फरेबी-मक्कार-दुष्ट व्यक्ति,जो करोड़ों-अरबों में खेलता हुआ दिखाई देता है,या जो तमाम आस्था-श्रद्धा और विवेकवान होने के बावजूद फाकामस्ती-तंगहाली में एकदम फटेहाल जीवन जीने को अभिशप्त है,तिस पर भी अन्य तरह-तरह की आपदाएं....इन सबमें साम्य क्या क्या है ...??कर्म-फल...!!??
           इस तरह के प्रश्न विवेकवानों द्वारा पूछे जाते हैं कि समाज में इतनी घोर अनैतिकता क्यों है ??क्यों कोई इतना गरीब है कि खाने के अभाव में, छत के अभाव में,दवाई के अभाव में,या कपड़ों के अभाव में ठण्ड से या लू से या बाढ़ से मर जाता है ??तरह-तरह की आपदाओं और बीमारियों से जूझने,उस दरमियान संचित धन के ख़त्म हो जाने और उसके बावजूद पीड़ित के मर जाने और उसके बीवी-बाल-बच्चों के एकदम से सड़क पर आ जाने की घटनाएं भी रोज देखने को मिलती हैं !!....फिर भी ईश्वर है ! और यह सब होना हमारे की कर्मों का फल !!
         मगर दरअसल इस प्रश्न को ठीक पलट कर पुछा जाना चाहिए (ईश्वर है-नहीं है के तर्कों को परे धर दीजिये) कि कोई बेहद धनवान है और हम यह भी जानते हैं कि यह धन उसने येन-केन-प्रकारेण या किस प्रकार पैदा या संचित किया है,या हडपा है या सीधे-सीधे ना जाने कितनों के पेट पर लात मारकर कमाया है !!(या हरामखोरी की है!!)और वो इतना क्रूर है कि उस-सबके बावजूद...अपने समाज में व्याप्त इस असमानता के बावजूद (जिसका एक जिम्मेवार वो खुद भी है !!) वो अपने संचित धन के वहशी खेल में निमग्न रहता है...अगर ईश्वर है, तो उसके भीतर भी क्यों नहीं है और अगर उसके भीतर नहीं है तो फिर हम यह क्यों ना मान लें कि ईश्वर नहीं ही है !!??
           अगर ईश्वर है तो सबमें होगा,होना चाहिए !! अगर ईश्वर है तो मानवता इतनी-ऐसी पीड़ित नहीं होनी चाहिए !! अगर ईश्वर है तो कर्मफल का बंटवारा भी वाजिब होना चाहिए !!.....मगर जो फल हम आज भोग रहें हैं,वो तो हमारे किसी अन्य जन्मों का सु-फल या कु-फल हैं ना....!! तो बस इसी एक बात से तो ईश्वर होने की बात,उसके होने की उपादेयता भी साबित हो जाती है !!
           इस तरह की बातों पर माथा-फोड़ी करने के बजाय अगर हम इस बात पर विचार कर पायें,तो क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम अगर खुशहाल हैं और हमारे पास इतना अधिक धन है कि ना जाने हमारी कितनी पीढियां उसे खाएं....फिर भी हमारे ही आस-पास कोई भूख से-ठण्ड से-दवाईयों के अभाव में या छत के अभाव में मर जाए,तो ऐसा क्यों है,अगर हमारे खुद के भीतर ईश्वर नहीं है तो फिर क्यूँ ना हम यह कह दें कि ईश्वर नहीं है,क्योंकि अगर वो है,तो या तो हमारे होने पर थू-थू है और हम गलीच हैं या हममे मौजूद ऐसे लोगों की क्रूरता धन्य है,जो दिन-रात पत्र-पत्रिकाओं और अन्य मीडिया द्वारा चिल्लाए जाते रहने के बावजूद किसी बात पर नहीं पसीजते और पसीजेंगे भी क्यों, क्योंकि वो तो जिस पत्थर के बने हुए हैं उसी के कारण तो शोषण-अत्याचार की सहायता से तरह-तरह ठगई द्वारा यह सब करते हैं,धन कमाने के लिया ह्त्या तक भी करते-करवाते हैं !! अगर फिर भी ईश्वर है तो होगा किसी की बला से !!
           आदमी में व्याप्त तरह-तरह की सदभावनाओं दया-भावों के बावजूद अगर कुछ लोग इन सब बातों से अछूते रहकर सिर्फ-व्-सिर्फ धन कमाने को ही अपना लक्ष्य बनाए धन खाते-पीते-पहनते-ओढ़ते आखिरकार मर जाते हैं और उनको जलाकर दफनाकर कब्रिस्तान-श्मशान में ऊची-ऊंची आध्यात्मिक बातें करने के बावजूद हम घर लौटकर वही सब करने में मशरूफ हो जाते हैं तो फिर भला ईश्वर कैसे है ??
            हमारे होने के बावजूद यदि सब कुछ ऐसा है और ऐसा ही चलता रहने को है तो फिर सच कहता हूँ कि हम सब धरती-वासियों को एक साथ खड़े होकर जोर की चीत्कार लगानी चाहिए कि तो फिर कह दो कि ईश्वर नहीं है....नहीं है.....नहीं है....!!
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रविवार, 18 दिसंबर 2011

अंदाज ए मेरा: मुर्गा लडाई का रोमांच

अंदाज ए मेरा: मुर्गा लडाई का रोमांच: स्‍पेन, पुर्तगाल और अमेरिका का बुल फायटिंग (सांड युध्‍द) का नजारा मैंने टीवी पर देखा है..... रोमांच का आलम वहां होता है इस खेल के दौरान पर ...

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

ओ ईश्वर !!क्या तुम यह बता सकते हो...!!??

विरोध के स्वर उठ रहें हैं हैं मगर बहुत धीमे-धीमे 
जैसी कहीं चाय बनायी जा रही हो पीने के लिए 
शायद हम यह नहीं जान पाते कभी कि 
थोड़ी कसमसाहट भी जरूरी होती है जीने के लिए 
उदासियों के शाश्वत माहौल में 
चंद लोगों की खुशियों का रंग हावी है 
ये चंद लोग समा गए है दुनिया की सारी पत्र-पत्रिकाओं में 
और बाकी के बेनूर लोगों पर बेनूरी भी रोया करती है 
फिर भी रात के अंधेरों में रौशनी की चकाचौंध 
सिर्फ चंद दरवाजों पे ही दस्तक देती है 
ये चंद लोग कौन हैं,ब-जाहिर है चारों तरफ 
फिर भी जाने कैसे कब और क्यूँ धरती के 
अरबों जीते-जागते लोग समा गए हैं 
इन चंद लोगों की सुर्ख़ियों की कब्र में 
ये कब्रें मातम कर रहीं हैं हर बखत
ठीक वैसे ही 
जैसे खुशियों की बरसात हो रही है चंद आंगनों तलक 
आदमी सभ्य हो रहा है,आदमी सभ्य हो गया है 
आदमी चाँद पर जा चुका है 
आदमी मंगल पर जाने वाला है 
आदमी ने खोज लिए कई नए ग्रह रहने के लिए 
मगर आदमी अब तक नहीं बना पाया है 
धरती को जीने लायक इंसानियत से भरा-पूरा ग्रह 
अब वो नए ग्रहों का क्या करेगा 
ओ ईश्वर !!क्या तुम यह बता सकते हो...!!??

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रविवार, 11 दिसंबर 2011

माननीय सम्पादक महोदय,


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

माननीय सम्पादक महोदय,
       आज सवेरे प्रभात खबर का सम्पादकीय पढ़ा,और तब से कुछ प्रश्नों से जूझ रहा हूँ,आपने लिखा "......यह एक तथ्य है कि भीड़ की ताकत संख्या होती है,विवेक नहीं. संसद के विवेक में देश के हर हिस्से से आये हुए जन-प्रतिनिधियों का (सामूहिक)विवेक शामिल होता है.जंतर-मंतर या किसी दूसरी जगह पर जुटी भीड़ का इस्तेमाल सांसदों के सामूहिक विवेक पर दबाव बनाने के लिए तो किया जा सकता है,फैसला लेने या फैसला सुनाने के लिए नहीं  "         
माननीय महोदय,ऐसा लगता है कि ऐसी बातें कतिपय माननीयों का अहम् कायम करने के लिए की जाती हैं.हमारी समझ से तो जनता अपने प्रशासनिक कार्यों की पूर्ति के लिए इन प्रतिनिधियों को संसद या विधान सभाओं में भेजती है,कारण कि इन जगहों पर चूँकि हजारों-लाखों की संख्या में लोग समा नहीं सकते,दूसरा ऐसा करने से एक दूसरी ही अव्यवस्था पैदा हो सकती है इसलिए ऐसा मान कर कि हम जिन्हें इन संवैधानिक जगहों पर भेज रहें हैं,वहां जाकर ये अपने कर्तव्यों का अनुपालन करते हुए हमें समुचित व्यवस्था,सुरक्षा और सु-शासन प्रदान करेंगे,ऐसा विवेक हमारे भीतर होता है मगर जिस सामूहिक विवेक की बात आप कर रहे हो,वह बहुत सारे जन-प्रतिनिधियों के किसी भी प्रकार के आचरण और चरित्र में कभी दिखाई नहीं पड़ता,तात्पर्य यह कि चुने जाने के पश्चात ये अपने लालच के कारण महज अपने स्वार्थों को पूरा करने के अलावा हमसे किये गए वायदों और उन सारी बातों या कर्तव्यों से मुकर गए और ऐसा भी जान पड़ता है कि वो आगे भी ऐसा ही करते रहने वालें हैं और जब जन-प्रतिनिधियों के भ्रष्ट होने की बात की जाती है,तो इशारा साफ़-साफ़ इन्हीं लोगों की और होता है....स्पष्टतया तो अपने आचरण और चरित्र से वे इन जगहों को कलंकित कर रहे होते हैं,जहां होकर देश का मान और जनता "दाम" बढ़ाना चाहिए !!
       किन्तु माननीय सम्पादक हम देखते है कि आप और आप जैसे कतिपय सम्पादक अपने आलेखों में चीख-चीख इन आचरणों और चरित्र पर आवाज़ उठाते हो मगर इनके कानों पर जूं नहीं रेंगती...आप सबों की पहल पर ये जेल जाते हैं,वहां भी ये गुलछर्रे ही उड़ाते हैं और कुछ दिनों बाद जमानत पर छूट जाते हैं,तो जब देश के या लोकतंत्र चौथे खम्बे के नाम से संवैधानिक दर्जे से सुशोभित इस मंच की आवाज़ का यह हाल है,तो आप सब ज़रा सोचिये कि आम जनता किन हालातों में जीती है और मजा यह कि कल तक अपने बीच में रह रहे किसी आम से सज्जन को अपना सेवक बनने के लिए भेजा जाकर भी अपने को छला हुआ पाती है तो उसके दिल पर क्या गुजरती होगी ?! यह बिलकुल वैसा ही है कि आपने तो तमाम गुण-रूप और आचरण देखकर शादी की मगर शादी होते ही आपका जीवन साथी किसी और के संग रंगरेलियां मनाने लगा...!!    
      और माननीय सम्पादक साहब, तमाम ऐसे प्रतिनिधियों के मानवता को शर्मसार कर देने वाले गंदले चरित्र से या अपने आचरण से दुनिया भर में भारत का मान/भाल नीचा कर देने वाले समस्त-"सु_कर्मों" के बावजूद भी आज तक अपनी संसद या कोई भी विधानसभा कलंकित नहीं हुई नहीं मगर उनके इस चरित्र पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाते ही ये संस्थाएं यकायक कलंकित हो जाया करती है...!! तो क्या जनता इतनी बेगैरत है कि उसके द्वारा किसी वाजिब सवाल को समुचित-सुसंगत तर्कों के साथ उठाये जाने के बावजूद आप उसे लांछित कर दो...??क्या यह भी किन्हीं ताकतवर लोगों का अहम् नहीं है,जो किन्हीं दुसरे ताकतवर लोगों के पक्ष में जा ठहरता है...?? 
         और माननीय सम्पादक साहब,जनता अपनी किस सीमा तक रहे यह तय करने से पहले यह तो तय कर लो कि हमारे भ्रष्ट जन-प्रतिनिधियों और 
उनकी चांडाल-चौकड़ी अपनी किस सीमा तक रहे....मगर इससे पूर्व एक बुनियादी बात यह कि हमने उन्हें वहां चांडाल-चौकड़ी का निर्माण करने हेतु नहीं बल्कि हमारे खुद के लिए सुशासन करने हेतु भेजा है....!!और वो हमारे ही भ्रष्ट राजा बन बैठे हैं....!!यह तो वही बात हुई कि मेरी बिल्ली और मुझी से म्याऊँ...!!....जनता भी विवेकशील ही होती है...अगर ऐसा नहीं है तो विवेकहीनता का तात्पर्य क्या यह भी तो नहीं है कि उसने अपने लिए गलत प्रतिनिधि चुन लिए हैं...??अगर ऐसा है तब तो उन्हें गद्दी से उतारना बनता है....बनता है ना...!!
        मतलब जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनने तक की सीमा तक तो सही या विवेकशील है...उसके बाद उसका यह गुण समाप्त हो जाता है,यही ना...??मतलब यह भी कि एक चुन लिए जाने के बाद जिसे जो चाहे करता रहे और जनता भाड़ में जाए जनता की बला से...!!इसका मतलब यह भी तो है कि जनता के बीच से उठकर जनता के लिए आवाज़ उठाने वाले सारे संविधान-विज्ञ और अन्य सम्मानित लोग चूँकि किसी रूप में संवैधानिक नहीं हैं,इसलिए उन्हें संविधान और संसद का अपमान करने का दोषी ठहराया जा सकता है,और उनपर तमाम गलत-सलत सलत लांछन लगाकर जनता को बरगलाया जाना बिलकुल संवैधानिक है...वाजिब है ??
     तो फिर सम्पादक साहब हम जनता यह आज से सबको यह बताना चाहते हैं कि इस देश के जन्मजात नागरिक होने के कारण सबसे पहले हम संवैधानिक हैं....उसके बाद कोई और...और संविधान में सचमुच अगर हमारे लिए कोई जगह है तो कोई भी संविधान के नाम पर अब ज्यादा दिनों तक हमें भरमाये रख "कुशासन" नहीं लाद सकता....हम भी संविधान के रक्षक हैं....और उसका भक्षण करने वालों को हटाने की कारवाई शुरू कर चुके हैं....जय हिंद....!!
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शनिवार, 10 दिसंबर 2011

अंदाज ए मेरा: सिब्‍बल बनाम रमन....!!!!!

अंदाज ए मेरा: सिब्‍बल बनाम रमन....!!!!!: कपिल सिब्‍बल कपिल सिब्‍बल। पेशे से वकील। कांग्रेस के बडे नेता और मौजूदा मनमोहन सरकार में मानव संसाधन मंत्री। डा रमन सिंह। पेशे से चि...

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

लोकतंत्र...!! हा...हा...हा...हा....क्यूँ मजाक करते हैं साहब !!


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!



लोकतंत्र...!! हा...हा...हा...हा....क्यूँ मजाक करते हैं साहब !!

          जब से सामाजिक मुद्दों पर सोचना-लिखना शुरू किया,या यूँ कहिये कि जबसे समाज के बारे समझने की उम्र हुई,तब से एक मुद्दा सदैव ज्वलंत मुद्दा बना रहा है मन में,वो यह है,भारत के लोग,उसकी समस्याएं,भारत का लोकतंत्र,लोकतंत्र के कारण पैदा हुई समस्याएँ और लोगों की मनोवृति के कारण लोकतंत्र में पैदा हो रही समस्याएं !!
         भारत के अ-शिक्षित,अर्द्धसाक्षर लोकतंत्र में जो तरह-तरह की विचित्रताएं हैं,उसके कारण इसे लोकतंत्र की संज्ञा देना वैसे तो लोकतंत्र शब्द की अवज्ञा है मगर अब जब यह मान ही लिया गया है कि भारत में लोकतंत्र ही है,तो मानना ही पडेगा !!मगर सच्चाई तो यह है कि भारत के शासकों की प्रवृति सदा से शाश्वतरूपेण राजशाही की ही रही है और आज भी है और लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं का ताना-बाना भी राजशाही भरा ही है और बजाय किसी आम सहमति के तमाम जगहों पर संस्थाओं में जायज या नाजायज ढंग से काबिज लोगों के काबिल या नाकाबिल वंशज ही मनोनीत कर दिए जाते हैं और ना सिर्फ आम जनता बल्कि संस्था के कार्यकर्ता भी उस व्यक्ति को पूजते रहते हैं,जिसे दरअसल कुछ विवेकवान लोगों या संस्थाओं द्वारा चोरी-छिपे या सरे-आम गरियाया भी जाता रहता है !!
          भारत का लोकतंत्र दरअसल यहाँ के हरेक आम या ख़ास की एक ऐसी बपौती है,जिसकी कि कोई परिभाषा नहीं हैं मगर जिसके लिए जो जो भी कह रहा है वो सही है,जो भी कर रहा है वो भी सही है और हर एक कोई इतना सही है कि दूसरे को गलत साबित करने के लिए वो किसी भी तरह की हिंसा की सारी हदें पार करने तक को तैयार है और दरअसल यहीं से इस लोकतंत्र की विचित्रताएं प्रारम्भ होती हैं,जो विचित्रताओं से ज्यादा भयानक हैं, वीभत्स हैं,क्रूर हैं !!जिसे कतई लोक का तंत्र नहीं कहा जाना चाहिए मगर इसे महान की संज्ञा जो देनी ठहरी,इसलिए इसे विश्व का विशालतम लोकतंत्र कहा जाता है,मगर मेरे जैसों के लिए यह सदा से कौतूहल का विषय बना हुआ है वो भी इतना ज्यादा कि इस पर कोई ग्रन्थ ही लिख मारूं मगर लिखने बोलने और सत्संग करने से अगर लोग बदल जाया करते तो ऋषियों-महर्षियों की जितनी बड़ी फ़ौज भारत नाम के इस देश में हो चुकी और उससे भी कई गुनी आज के दौर में हुई और फली-फूली जा रही है,भारत कब का स्वर्ग बन चुका होता,होना चाहिए था...मगर सारे नामी-गिरामी स्वर्गवासी हो चुके,हुए जा रहें हैं,भारत का कुछ बनता ना बिगड़ता है,निजी उपलब्धियों को भले आप कुछ भी नाम दे दो,उससे भारत की अधिसंख्य जनता का एक धेला भी नहीं कुछ होता !!
          यह बड़ा विचित्र नहीं है कि आप किसी देश को प्रेम तो करते होंओं मगर उस प्रेम की एक भी शर्त पूरी नहीं करते सिवाय एक यहाँ पैदा होने के और मजा यह कि उस पर आपका कोई हक़ ना था !!
अगर आप किसी भी देश में पैदा होने को लेकर अगर उसका गुणगान करते हो,या फिर उसकी निंदा या आलोचना जो भी करते हो,मगर दरअसल आप उसके हक़ या बेहतरी के लिए क्या करते हो?कुछ करते भी हो या नहीं !!अजीब हाल है यहाँ का एक रात को तो सब चोरी करते हैं और सुबह से शाम तक सब चिल्लाते हैं कि चोर-आया-चोर आया !!और चोर कौन है यह पता ही नहीं चलता....और अगर पता चल भी पाता है तो उसमें भी बरसों अदालती कार्यवाहियों के बाद ससम्मान छूट जाते हैं,क़ानून को धत्ता बताकर....और गलती से किसी को दंड मिल भी जाए तो इसे भारत की समझ लीजिये !!
         हम भारतीयों में बहुतेरे तो अकर्मण्य हैं,काहिल हैं और रही सही कसर कुछ सरकारी योजनायें पूरी कर देती हैं हमें और अधिक अकर्मण्य बना डालने के लिए ! मगर तुर्रा यह कि हम यह मानते भी नहीं और अगर हमें कोई काहिल कह भी दे तो फिर देखिये कि क्या होता है...! अनपढ़ लोग तो जाहिल-गंवार कहे जाते हैं,मगर पढ़े-लिखों का आचरण देखकर भी ऐसा नहीं लगता कि किसी भी सूरत में उनसे कमतर कहे जाने योग्य हैं,मगर मित्रों,अनपढ़ तो अनपढ़ है ही ,आपने भी पढ़-लिखकर कौन सा बड़ा तीर मार लिया...अगर आपका आचरण भी ऐसा ही है तो आप तो उससे भी गए-बीते हुए ना ?मगर कोई आपको ऐसा कहकर तो देखे !! मगर तमाम अ-संस्कार.कु-संस्कार, अ-लोकतांत्रिक, अ-सामाजिक और सभी तरह के सामाजिक कर्तव्यों से च्यूत रहकर भी आप अहंकार की भाषा का उपयोग करें,यह लाजिमी तो नहीं लगता मगर सवाल तो यह है कि यह आपको बतलाये-समझाए कौन ?
         आखिरी बात यह है अगर कोई बेहतर ना कर पाए तो शायद चल भी सकता है,मगर इसके ठीक उलट बुरा किया जाए तो इसका परिणाम भी निश्चित रूप से बुरा ही होगा,होगा ना...??तो भारत में दरअसल यही होता आ रहा है,हम सब अपनी-अपनी जगह पर अपनी-अपनी औकात के अनुसार भारत को लूट रहें हैं,लूटे जा रहें हैं!!कोई सीधा बन्दूक के बल पर लूट लेता है,जिसे हम डकैती कहतें हैं,तो कोई  सरकारी नियमों में डकैती कर डकैतों से भी कई गुना की डकैती करते चले आ रहें हैं,मगर उनका कोई माई का लाल बाल भी बांका नहीं कर पाता क्योंकि उन्होंने बन्दूक नहीं उठायी हुई है और यह वीभत्स खेल दरअसल जनता के तमाम तरह के हितों की अनदेखी करके नहीं बल्कि उन्ही का हिस्सा हजम करके किया जा रहा है,और मजा यह कि किसी को राई-रत्ती भर भी शर्म नहीं आती !!
          और दरअसल यही वो जगह है जहां पर कि सवाल नहीं उठता,वो सवाल है शर्म का,जो दुर्भाग्य से हम सबने खो दी है,किसी ने ज्यादा तो किसी ने कम और जिसने जितनी ज्यादा शर्म खोयी है वो उतना ही ज्यादा वैभवशाली है और मजा यह भी है हमहीं लोगों ने उसे प्रतिष्ठा भी प्रदान भी की हुई है !! दोस्तों,आदमी अगर अपना कोई आचरण खो दे तो शायद उसे राह पर लाया भी जा सकता है मगर आदमी अगर अपनी शर्म ही खो दे तो वो एक पत्थर हो जाता है,जिस पर माथा पटकने से अपना माथा फूटने के सिवाय कुछ हासिल नहीं होता...!!और हम भारतीय अब वही पत्थर हैं जिस पर हमारा लोकतंत्र आज अपना सर पीट रहा है...माथा धुन रहा है,मगर मजाल है कि हमें कोई फर्क भी पड़े !!
अर्ज़ किया "जब एक ही उल्लू काफी था बर्बादे-गुलिस्ताँ करने को,हर शाख पे उल्लू बैठा है,अंजामे-गुलिस्ताँ क्या होगा...!!
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हमें चाहिए होता है प्यार


हमें चाहिए होता है प्यार

और हम चुनते हैं सुन्दर-कीमती कपडे


हमें चाहिए होता है प्यार


हम चुनते हैं धन-संपत्ति-मकान


हमें चाहिए होता है प्यार


हम चुनते हैं अच्छा भोजन,अच्छे रेस्टोरेंट


हमें चाहिए होता है प्यार


हम चुनते हैं पैसे वाले दोस्त-रिश्तेदार


और बदले में दुत्कार देते हैं


अपने ही किसी कमजोर रिश्तेदार को


चाहे क्यों ना हो वो हमारा अपना ही खून


और इस तरह


हमें चाहिए होता है प्यार


मगर हम चुन लेते हैं


घृणा-अविश्वास-लालच और फरेब


अंततः हमें चाहिए होता है प्यार


और हम चुन लेते हैं


हमेशा के लिए शत्रुता


और इस तरह हमें जिन्दगी में


अपना चाहा हुआ सब कुछ मिल जाता है


बस एक सच्चे प्यार के सिवा.....!!

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

अंदाज ए मेरा: एक और एक ग्‍यारह.......

अंदाज ए मेरा: एक और एक ग्‍यारह.......: एक पुरानी कहावत है एक और एक ग्‍यारह होते हैं। इसका आशय यह है कि जो काम एक व्‍यक्ति नहीं कर सकता उसे एक से ज्‍यादा लोग मिलकर कर सकते है...

शनिवार, 26 नवंबर 2011

बस एक थप्पड़ !!??


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
बस एक थप्पड़ !!??
           आज के भारत का सबसे ताजा और मौजूं प्रश्न,आज के भारत के सबसे ज्यादा सुने और सराहे जाने वाले एक गैर-राजनैतिक व्यक्ति के मूंह से निकला हुआ और अब तक सर्वाधिक भर्त्सना का शिकार हुआ एक बयान,जिसे लोकतंत्र के खिलाफ और हिंसा के पक्ष में दिया गया एक गैर-जिम्मेदाराना बयान बताया जा रहा है,मगर सिर्फ राजनैतिक नेताओं और उनसे जुड़े लोगों द्वारा....आम लोगों में इस बयान के प्रति कोई भर्त्सना-भाव नहीं दिखाई पड़ता !! ऐसा लगता है कि आम लोगों का भी यही एक सवाल है.....बस एक थप्पड़ !!?? 
            आप ज़रा सोच कर देखिये कि एक अरब-पति ताकतवर नेता....पता नहीं कितनी संपत्ति का स्वामी....तरह-तरह के दबंग और ताकतवर लोगों का भी बाप....महाराष्ट्र का सबसे कद्दावर नेता...उसे थप्पड़ मारने के लिए कितना साहस चाहिए होगा...??क्या हममें से...आपमें से कोई ऐसा कर सकता है ??.....तो जिस भी किसी ने ऐसा किया है उसने अपनी मानसिकता के किन हालातों के मद्देनज़र ऐसा किया होगा...??और उसने ऐसा करने बाद क्या कहा है वो आपको पता है...??यही कि शरद पवार सबसे भ्रष्ट है और अरबों की संपत्ति का स्वामी है,जिसे हम पहले से ही जानते हैं और यह भी जानते हैं कि इस "मादरे-वतन"!! के 543 संसद-सदस्यों में से आधे से अधिक नेता अरबपति हैं,कुछ पहले से हैं,कुछ के कल-कारखाने भी हैं और कुछ पिछले वर्षों में बही बयार में अरबपति बन गएँ हैं !! सांसद-विधायक बनते ही बरस भर में कोई भी ऐरा-गैरा करोड़-पति बन जाता है और अगर मंत्री बन गया तो उसी अवधि में अरबपति !!??क्यों और कैसे ??!!  बिना किसी व्यापार आदि के बिना पढ़े-लिखे होने के भी....और यहाँ तक कि बिना किसी चरित्र-आचरण के बावजूद इस संसद-सदस्य/विधानसभा-सदस्य नामक जीव को ऐसे कौन से सुरखाब के पर मिल जाते हैं कि कोई नत्थू-खैरा भी हमारे-आपके ही संबंधों और वोटों से हम-आपके बीच से उठकर देखते-ना-देखते कहाँ का कहाँ पहुँच जाता है,उसकी बोली बदल जाती है,यहाँ तक कि वह अपने उस भूत के समाज तक को नहीं पहचानता,जहां से वो आया है !!और विस्मय से हमारी आँखें फटने-फटने को आ जाती हैं !!मगर नहीं फटती !!
           ये सब क्या है,ये सब क्यूँ है,ये सब कब तक चलता रहेगा ??और ऐसी राजनीति को कोई व्यक्ति थप्पड़ मार कर उसे उसकी सही औकात दिखा दे तो आप उसकी लानत-मलामत करने लगो ??अगर कोई कह दे कि बस एक थप्पड़ ,तो आप सारी संसद का अपमान मान लो ??अगर कोई ओम पूरी जैसा शख्स कुछ संसद सदस्यों को बे-पढ़ा-लिखा और असभ्य बता दे तो उसे नोटिस भेज उसे आखिरकार माफ़ी मानने को विवश कर दो....??अरे भाई आप लोग हो क्या....??जिन करोड़ों लोगों ने अपना विश्वास प्रदान कर आपको संसद में पहुंचाया है,उन्हें उसके बदले में तुमने क्या दिया है....अरे माननीय महान लोगों !!, पिछले साठ-बासठ-चौंसठ बरसों में आपने अपने घर को भरने के सिवाय और क्या किया है ?? आपको धंधा ही करना था तो आप नेता क्यों बने....दलाल बनते....ठेकेदार बनते....कुछ भी बनते ना...!!मगर नेता क्यूँ बने...??सिर्फ इसीलिए ना कि आपमें कुछ बन पाने की योग्यता नहीं थी.....!!??मोहल्ले-टोले-कस्बे-गाँव लोगों को उलटे-सीधे तरीके से भरमाते हुए आपने किसी के साथ अपनी गोटी फिट की और इस तरह पदार्पण हुआ आपका राजनीति में....!!अगर किसी रसूखदार परिवार से हुए तो सीधे-सीधे ही आका के पद पर जा बैठे !!मगर राजनीति का अर्थ क्या कभी आपने जाना भी....??क्या वतन की आबरू और राजनीति में कोई रिश्ता है,यह आपने समझा.....!!??क्या आज-तक आप यह समझ पाए हो कि भारतमाता को आपने अपनी रखैल बना कर रख दिया है....??क्या आप यह समझते हो कि इस भारतमाता के अंग-प्रत्यंग को आप चूसते जा रहे हो....??क्या आप जानते हो कि आपने अपने घर को भरने के लिए एक समूची पीढ़ी को  लालची-स्वार्थी-काहिल और बेईमान बना डाला है....??अरे ओ महान लोगों.....आपने इस देश का क्या कर डाला है.....क्या आपको पता भी है....??काहिल-भ्रष्ट-बेईमान-लम्पट-लालची और स्वार्थी  ठेकेदार....!!काहिल-भ्रष्ट-बेईमान-लालची-लम्पट और स्वार्थी  इंजीनियर काहिल-भ्रष्ट-बेईमान-लालची-लम्पट और स्वार्थी डॉक्टर...!!,काहिल-भ्रष्ट-बेईमान-लम्पट-लालची और स्वार्थी  शिक्षक...!!काहिल-भ्रष्ट-बेईमान-लम्पट-लालची और स्वार्थी स्टुडेंट.....!! काहिल-भ्रष्ट-बेईमान-लम्पट-लालची और स्वार्थी  अफसर...!!काहिल-भ्रष्ट-बेईमान-लम्पट-लालची और स्वार्थी एन.जी.ओ.....!!काहिल-भ्रष्ट-बेईमान-लम्पट-लालची और स्वार्थी  राजनीतिक कार्यकर्ता,जिनका अभीष्ट केवल और केवल आपकी सेवा-चाकरी और आपका गुणगान...!!और काहिल-भ्रष्ट-बेईमान-लम्पट-लालची और स्वार्थी वो तमाम तरह के लोग,जो आपके तमाम तरह के स्वार्थों को सिद्ध करने को ही अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझते रहे.....!!??
            अरे वाह रे ओ महान नेताओं....!!इस "मादरे-वतन"की सेवा हेतु यह कितनी सुन्दर फ़ौज आपने तैयार की है ना....आपने !!??लाखों-लाख की तादात में इन तमाम तरह के अकर्मण्य लोगों की इस फ़ौज को जन्म देकर क्या शान का काम किया है ना....!!??देश की इस मासूम जनता का अरबों रूपये का टैक्स आप इन अकर्मण्य लोगों में बाँट-बाँट कर वतन की जिस तरह की और जो सेवा करवा रहे हो ....सो यह जनता देखती आ रही है...!!??.....तो अब बताओ आप कि अब इस वतन का क्या करना है.....??जिन गरीब-गुर्गों के नाम पर अब तक योजनायें बना- बनाकर उनके हिस्से के अरबों-खरबों-महाशंखों रुपये अब तक जो आप सब मिलकर हजम कर चुके हो...और अब भी डकार नहीं लेते...!!...तो फिर ओ इस महान वतन के वतन के महान नेताओं अब यह तो बताओ कि इन कंगाल-भूखे-नंगे गरीब-गुर्गों को बंगाल की खाड़ी में फेंकना है या अरब सागर में....!!वैसे हिंद महासागर भी बहुत दूर तो नहीं ही है ना ....!!??
             मेरे/हमारे/हम सबके प्यारे-प्यारे महान अरबपति नेताओं जिस वतन की धरती की मिटटी का  आप सब खाते-पहनते आये हो...उस वतन की मिटटी का आपने जितना मान रखा है....उससे आपकी संसद कभी कलंकित नहीं हुई...??!!वतन का भाल पिछले हज़ार सालों से वैसे ही नीचा था....और पिछले चौंसठ बरसों में आपने उसे जितना नीचा और शर्मसार बनाया है उससे भी आपकी संसद कभी कलंकित नहीं होती...भारत माता के आँचल से और उसके गर्भ से अकूत धन-संपदा आप सब मिलकर आज तन बेहया होकर लूट-लूट कर खा रहे हो तब भी आपकी संसद कलंकित नहीं हो रही....मगर "सा..."कोई ओम पूरी कुछ बोल दे....कोई रामदेव कुछ कह दे...कोई अन्ना लोकपाल की मांग कर दे....या कोई हरविन्दर कोई एक अरबपति धंधेबाज नेता को थप्पड़ मार दे तो यही संसद...जो देश के बड़ी-से-बड़ी शर्मिन्दगी पर नहीं पसीजती ...??!! देश की आबरू लूट जाने पर भी नहीं कलंकित नहीं होती...!!??किसी पडोसी देश द्वारा इसकी भूमि हड़प लिए जाने पर भी द्रवित नहीं होती...!!??यहाँ तक कि संसद में बैठे अपराधियों और उनके द्वारा किये/करवाए जा रहे अपराधों पर भी कलंकित नहीं होती...!!??...एक क्षण-मात्र  में कलंकित हो जाती है कि संसद के तमाम माननीय सदस्यों का अपना महान और गर्व भरा चेहरा या मस्तक छिपाने को ठैया ही नहीं मिलता..!!??ऐसी महान संसद को शत-शत नमन है.....ऐसे महानतम संसद सदस्यों को हम-सब आम जनता का कोटि-कोटि प्रणाम !!??
             और अंत में....यही कि अन्ना-रामदेव याकि इस तरह के तमाम अ-सामाजिक लोग,जो खुद को देश का बड़ा पैरोकार समझते हैं...और ऐसा समझते हैं कि देश-हित में वही एक सही हैं...अपनी इस भ्रान्ति को यह आलेख देखते ही सुधार लें...क्योंकि जो भी लोग इस देश के काहिल-भ्रष्ट-बेईमान-लम्पट-लालची और स्वार्थी लोगों के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं....दरअसल वो लोग खुद ही देश द्रोही हैं....और इसके मद्देनज़र या तो वे खुद ही यह देश छोड़कर चलें जाएँ या फिर जल्द ही किसी अदालत द्वारा फैसला सुनाकर ऐसा ही कुछ किया जाने वाला है...!!और यह भी कि कांग्रेस ही इस वतन की सच्ची रखवाली है...आज़ादी के पूर्व से ही वो इस वतन की सेवा अपने पूरे "तन-मन-धन"से करती आई है....सो अपने पूर्वजों के पुण्य का फल भी तो उसी के वंशजों को मिलना चाहिए ना....!!तो इस महान वतन के ओ तमाम भीखमंगे लोगों आपसे इस नाचीज़ की मार्मिक अपील है कि आप  इस कांग्रेस के वर्तमान तारणहार वंशज इटली-पुत्री के महान सुपुत्र संत-शिरोमणि "श्री-श्री-श्री राहूल गांधी जी महाराज" को ही अपना अगला प्रधान-मंत्री बनाना !!और कभी किसी ऐसे व्यक्ति को दंड देने के बारे में सोचना भी मत जिन्होंने तुम्हें इस भीखमंगाई के हालात में पहुंचाया है जय-हिंद....!!

शनिवार, 19 नवंबर 2011

इस वतन का भला सोचने वाले ही असल में देश-द्रोही हैं !!


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
            रोज की तरह रोज अखबार पढता हूँ....और इनके माध्यम से अपने आस-पास की अच्छाईयों और बुराईयों से अवगत होता हूँ...कहना ना होगा कि अच्छाईयों से ज्यादा बुराईयों के समाचार ही छाए हुए होते हैं तमाम तरह की ख़बरों में.....ऐसा लगता है कि आदमी ने अपने खुश रहने का माध्यम ही हर तरह की बुराई को बना रखा है...और मज़ा यह कि इसी समाज से इन्हीं बुराईयों के खिलाफ प्रलाप का सूर भी उसी समय बिखरता होता है....पता नहीं क्यूँ हर एक आदमी को अपना किया हुआ सब कुछ सही और किसी दुसरे का किया हुआ वही सब कुछ ना सिर्फ गलत,अपितु नाजायज तक लगता है...ऐसे में इस समाज की सोच की बुनियाद में कोई तुक ही नज़र नहीं आती !!
              अपने इस भारत नाम के देश में जिसे जो समझ में आता है,करता है,जो जहां बैठा है वहीं से भारत का खून चूसता रहता है....इसकी मांस-मज्जा को बड़े चाव से किसी मीट-मुर्गे या बकरी के गोश्त की तरह अपनी जीभ के लार के साथ अपने पेट के भीतर हज़म करता जाता है....जो जहां है,वहीं से व्यवस्था के पावों को काटता जाता है और अव्यवस्था को फैलाने में ना सिर्फ अपना योगदान देता है बल्कि उसे स-उत्साह नयी उमंगें-नयी ऊंचाईयां भी प्रदान करता है !!
            मानव-धन और युवा-बल-धन से परिपूर्ण यह देश अपने ही रहनुमाओं के चुंगल में कसमसाता-छटपटाता रहता है....यह वो देश है जिसके कसीदे पता नहीं कब से गाये जाते रहे हैं....और इस युग में भी नए तरह के गान से इसकी तरक्की का स्वागत होता दीख पड़ता है...मगर समझ ही नहीं आता कि यह देश आखिर है तो है क्या !! कुछ दस-हज़ार या कुछेक लाख अमीर लोगों का एक गाँव....या कि करोड़ों अभीशप्त-बेबस लोगों का एक संजाल मात्र.....!!
            चाँद और मंगल की ओर यात्रा करते हुए इस देश का भविष्य आखिर क्या है ??भूखे-नंगे लोगों से भरे हुए इस देश की भीतरी औकात आखिर है क्या ??काहिलों,कामचोरों और नकारा लोगों से भरे हुए लोग कैसे इसे इसके असली और वांछित मुकाम पर पहुंचाएंगे....??और तो और एक-दम से भ्रष्ट और बे-ईमान इसके रहनुमा इसे आखिर कहाँ लेकर जाना चाहते हैं....??
            बेशक हर जगह की तरह यहाँ भी अच्छाई है....मगर वो इतनी कमतर और क्षीण है कि कोई अच्छी-सी आशा करना भी अब मज़ाक लगता है.....अब सोचने लगा हूँ कि इस वतन का सचमुच भला सोचने वाले और करने वाले ही असल में देश-द्रोही हैं....आमीन....!!

रविवार, 13 नवंबर 2011

अंदाज ए मेरा: माथे पर लिख दिया- दत्‍तक बालिका....!!!!!

अंदाज ए मेरा: माथे पर लिख दिया- दत्‍तक बालिका....!!!!!: सरकारी योजनाएं जनता के भले के लिए होती हैं लेकिन जब सरकारी योजनाओं के माध्‍यम से जनता का मजाक बनने लग जाए या फिर मासूम बचपन को सरकारी योजन...

बुधवार, 9 नवंबर 2011

अंदाज ए मेरा: इमरजेंसी लगी है घर में......!!!!

अंदाज ए मेरा: इमरजेंसी लगी है घर में......!!!!: मेरे घर का माहौल कल से खराब है ! मेरी पत्‍नी थोडी थोडी देर में चिल्‍ला रही है ! जिस वक्‍त देश में इमरजेंसी लगी थी उस वक्‍त मैं महज चार ...

शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

अंदाज ए मेरा: बडी हो रही है मेरी बिटिया: ­­­ अभी कल ही की तो बात है। मेरे घर एक नन्‍ही परी का आना हुआ था। समय कितनी तेजी से बीतता है। कब गोद से उतरकर वो चलने लगी और कब बोलने लग...

बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

अन्धेरा हमारे आस-पास घिरता जा रहा है....!!


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
             आज,जैसा कि सब जानते हैं,दीवाली का पर्व है,और भारत देश में चारों और हैप्पी-दीवाली,हैप्पी-दीवाली के स्वर बोले जा रहें हैं...और इस पर्व को मनाने की तैयारियां भी चारों तरफ की जा रहीं हैं !सभी तरफ बाज़ारों में बेशुमार भीड़ है गोया कि हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी....और इस भीड़ के कारण हर तरफ जाम-ही-जाम भी है ! लोग खरीदारी-पर-खरीदारी किये जा रहें हैं !अभी दो दिन पूर्व ही धनतेरस का पर्व भी आकर गया है,जिसमें लोगों ने हज़ारों करोड़ की खरीदारी की है पूरे देश में,अब दो ही दिन बाद भी इससे कोई कम खरीदारी नहीं की जाने वाली है....लोगों का पेट भरता ही नहीं,परम्परा जो ठहरी !!


             खरीदारी के इस वातावरण को देखते हुए ऐसा कभी महसूस भी नहीं हो सकता कि गरीबी नामक किसी चिड़िया का बसेरा भी इस देश में है....और यही वो देश भी है,जहां आज भी लाखों-लाख लोग भूखे ही सो जाने वाले हैं !!"उत्सव" के माहौल में किसी का रोना-पीटना लाजिमी नहीं लगता ना दोस्तों...?मगर पता नहीं क्यों हमारे जैसे कुछ लोगों को सुखी लोगों की खुशियाँ देखे ही नहीं भाती....तभी तो इन खुशनुमा पलों में भी मातम ही मनाने को होता है और इस तरह रंग में भंग हो जाता है मगर क्या करूँ अपनी भी आदत ही ऐसी है !

              दोस्तों,पता नहीं क्यूँ मुझे हमेशा इस इस चकाचौंध के पार अन्धेरा ही दिखाई देता है....आत्मरति में लीन हम सब खुशियों भरे लोग गोया खुशिया नहीं मना रहे होते,अपितु करोड़ों-करोड़ लोगों के मुख पर तमाचा-सा मार रहे होते हैं....!!जब लाखों हज़ारों रुपये खर्च करके हम जैसे लाखों लोग खुशियाँ मनाते हैं,तब करोड़ों लोग हमें टुकुर-टुकुर ताकते रहते हैं मुहं बाएं हुए....हमको पता भी नहीं होता कि हमारे आस-पास ही रहने वाला एक बहुत बड़ा वर्ग रोजमर्रा की जिन्दगीं में हमसे जुदा हुआ होकर भी हमारी इन बेपनाह खुशियों में शरीक नहीं रहता....और मजा यह कि हम पढ़े-लिखे सभ्य लोगों को इसका पता भी नहीं होता...!!
            
  इसीलिए दोस्तों...हरेक बार जब दीवाली आती है,मेरा मन उदास हो जाया करता है...बल्कि मनहूस-सा हो जाया करता है....इस दिन मैं जिन्दगी में सबसे ज्यादा बोर....सबसे ज्यादा उदास हो जाता हूँ...क्यूंकि मैं देखता हूँ कि इस दीवाली को अन्धेरा और भी घना हो गया है....इस तरह दोस्तों हरेक दीवाली में बढती हुई कारपोरेट चकाचौंध-धमक और जगमग के बावजूद और भी ज्यादा अन्धेरा हमारे आस-पास घिरता जा रहा है....!!और एक बात बताऊँ दोस्तों...??जल्दी ही यह अन्धेरा इतना घना हो जाने वाला है...कि हमें ही डंस लेने वाला है....क्यूँ कि हमें यह पता भी नहीं कि इस अँधेरे के एक जिम्मेवार कहीं-ना-कहीं हम खुद भी हैं...!! 

सोमवार, 17 अक्टूबर 2011

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि.......


कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जो धन वो चोरी-छुपे ले जा रहें हैं देश से बाहर 
या फिर अपनी ही कहीं-किसी तिजोरी में
उससे संवर सकती है उनके के हज़ारों भाइयों की ज़िंदगियाँ !
और खुश हो सकते हैं वो पेट भर अन्न या तन पर कपड़े पाकर 
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस धन के पीछे कर रहें वो इत्ते सारे कुकर्म 
अगर ना करें वो तो बदल सकती है देश की तकदीर !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जो सुन्दर व्यवस्था वो अपने लिए चाहते हैं और बना रहे हैं 
उसी के कारण हो रही है उसी व्यवस्था में एक अराजक सडांध ! 
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस धन को सही तरीके से बाँट देने पर 
बेहतर तरीके से हो सकता है सामाजिक समन्वय !
उसे सिर्फ अपने लिए बचा लेने के कारण ही 
बढ़ रहा है असंतुलन और वर्गों में एक अंतहीन दुश्मनी ! 
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
अगर रिश्तों पर दे दी जाती है धन को ज्यादा तरजीह 
तो बाहरी चकाचौंध तो बेशक आ सकती है जीवन में 
मगर रिश्तों का खोखलापन जीवन को कर देता है उतना ही निरर्थक !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
अगर धन के पीछे ना भागकर उसे परमार्थ के काम में लगा दो तो 
दुनिया बन सकती है सचमुच अदभुत रूप से संपन्न और सुन्दर !
जिसकी कि कामना करते रहते हैं हम सब हमेशा ही सदा से !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि अगर सच में 
बेतहाशा धन कमाने वाले अगर अपना आचरण आईने में देख-भर लें 
तो शायद समझ आ जाए उन्हें वह सब कुछ 
जिसे समझने के लिए वो जाते हैं तरह-तरह के साधू-संतों के पास अक्सर ! 
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस व्यवस्था को कमा-खाकर भी वो कोसते हैं उसकी कमियों के लिए 
उस घुन को लगाने वाले सबसे बड़े जिम्मेवार दरअसल वो ही तो हैं !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं 
क्यूंकि ऐसा करने वाले इतने थेथर-अहंकारी-धूर्त और मक्कार बन चुके हैं 
कि स्कूल-कॉलेज में पढ़-कर साधन-संपन्न बनाने के बाद भी 
उन्हें नहीं पता शब्दकोष के भीतर के अच्छे-अच्छे शब्दों का अर्थ 
क्योंकि दरअसल इन शब्दों के अर्थों को भूल-भुला कर ही तो 
वो बने जा रहे हैं इतने ठसकवान और ऐब-पूर्ण 
कि उन्हें अपने कारखानों या अपनी गाडी के नीचे आकर 
मरने वालों का चेहरा तक नहीं दिखाई देता !
और इस तरह जहां हज़ारों लोग भूखे मर जा रहे हैं 
वो खाए जा रहे हैं एक पूरे-का-पूरा देश 
और हज़म कर ली है उन्होंने एक समूची-की-समूची व्यवस्था.....!! 

शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

अंदाज ए मेरा: वेलडन बंगाल टाईगर......

अंदाज ए मेरा: वेलडन बंगाल टाईगर......: मान गए आपको। जज्‍बा हो तो ऐसा। आपके जज्‍बे को देखकर लगता है कि आपको बंगाल टाईगर ऐसे ही नहीं कहा जाता। पश्चिम बंगाल की मुख्‍यमंत्री सुश्री...

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

पता नहीं कौन-सी मिट्टी का बना हुआ है आम आदमी




ये ख़ास आदमी जो देश को रोज लहू में डुबोता है
कहते हैं फिर भी ख़ास आदमी को स्ट्रेस बहुत होता है!
बड़ी मुश्किलों से जो हाथ हर एक खेत जोतता है 
सोना बोकर भी इस आदमी का हाथ तंग ही होता है!
क्या ऐसे ही लोगों से होगा वतन का भाल ऊँचा यारों 
किसी के हाथ में लाठी है,किसी के हाथ में लोटा है!


पता नहीं कौन-सी मिट्टी का बना हुआ है आम आदमी 
देश चढ़ रहा है तरक्की की सीढ़ियाँ और ये मनहूस रोता है!
इस ख़ास आदमी की ताक़त और गरूर को तो देखिए जनाब 
जिसे काट डाला है अभी इसने,उसी के लहू में हाथ धोता है!
अब कैसे बताऊं तुम्हें कि मैं उसका कौन होता हूँ मेरे दोस्त
बस जब-जब तुम उसे मारते हो तब-तब दर्द मुझे होता है!


तुम्हारे लिए ये हरफ़ ग़ज़ल ना बन सकी हो तो ना ही सही
इस ग़ज़ल का मगर हर इक हरफ़ आम आदमी का दर्द रोता है!
ये सिसकियों की आवाज़ कहाँ से आ रही है ओ खुदारा मेरे
ये कौन है जो कब्र में भी आज तक खून के आँसू रोता है!!   

सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

अंदाज ए मेरा: अमिताभ बच्‍चन पिछले जन्‍म में भी नायक थे....!

अंदाज ए मेरा: अमिताभ बच्‍चन पिछले जन्‍म में भी नायक थे....!: महानायक। शताब्‍दी का नायक। सुपर हिरो। एंग्री यंग मैन। शहंशाह। बिग बी। ना जाने कितने नामों से जाना जाता है अमिताभ बच्‍चन को। न भूतो न भवि...

मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

अंदाज ए मेरा: हो गया एक बरस...

अंदाज ए मेरा: हो गया एक बरस...: गोवा के समुद्र तट पर ढलते सूरज के साथ मेरी तस्‍वीर .5 अक्‍टूबर। हर दिन की तरह सामान्‍य दिन.... पर यह दिन मेरे लिए खास बन गया। पिछले साल ...

रूहें खानाबदोश क्यूँ हुआ करती हैं.....??






मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!


            पता नहीं क्यूँ रूहें खानाबदोश क्यूँ हुआ करती हैं.....और ख्वाब क्यूँ आवारा....!!क्या हमारे भीतर किसी रूह का होना कहीं कोई ख्वाब ही तो नहीं....या कि हम कहीं ख़्वाबों को ही तो रूह नहीं समझ बैठे हैं....क्यूंकि सच में अगर रूह हुआ करती तो आदमी भला बेईमान भला क्यूँकर हुआ करता...!!अगर सच में आदमी के भीतर रूह हुई होती तो उसका अक्श भी तो उसके भीतर दिखाई दिया होता....हज़ारों हज़ार बरसों में कुछ सैंकड़े आदमों में ही इसकी खुशबू तो नहीं पायी जाती ना....अब जैसे फूल के भीतर अगर खुशबू है...तो वह भले ही दिखाई नहीं देती....मगर उसकी गंध तो साफ़-साफ़ हम ले पाते हैं ना अपने भीतर...!!अब जैसे किसी भी वस्तु का जो भी स्वभाव है...उसे हम प्रकटतः देख-सुन-महसूस तो कर पातें हैं ना...यह बात ब्रहमांड के भीतर व्याप्त हरेक पिंड-अपिंड में लागू होती है....उसी तरह आदमी के भीतर अगर रूह का होना सचमुच सच है....तो कहाँ है भला उसकी खुशबू....कहाँ है उसका कोई स्वभाव....जो उसे सचमुच रूह-युक्त करार देवे....??
              बेशक ख्वाब तो आवारा ही हुआ करते हैं....और उनका आवारा होना ही बार-बार हमें किसी ना किसी तरह से जन्माता है....मारता है....हमें जीवन्तता प्रदान करता है....रूह और ख्वाब का सम्बन्ध सचमुच किसी ना अर्थ में सही है.....आदमी जो ख्वाब देखता है....दरअसल उनका कोई अस्तित्व ही नहीं हुआ करता....आदमी ख्वाब में अपनी जो दुनिया निर्मित करता है....वह दरअसल कभी बन ही नहीं पाती....आदमी ख्वाब देखता चला जाता है....और सोचता चला जाता है कि वह कल ऐसा कर लेगा....वह कल ऐसा कर लेगा...हर कल आज होकर फिर से गुजरे हुए कल में बदल जाता है....ख्वाब,ख्वाब ही रहता है....हकीकत नहीं बन पाता....मगर आदमी की आशा एकमात्र ऐसी चीज़ है....जो कि आदमी का भरोसा उसके ख्वाब से बिलकुल नहीं छूटने देती....आदमी रोज उन्हीं ख़्वाबों में जिए चला जाता है...जो प्रतिदिन टूटा करते हैं....और जिन्दगी में ना जाने कितनी बार टूटते ही चले जाते हैं....और आदमी भरोसा किये चला जाता है.....आदमी आशा किये चला जाता है....जिन्दगी एक आस है....सपनों के पूरा होने का.....और जिन्दगी एक प्यास है....जिन्दगी को जिन्दगी की तरह पी जाने का....किसी की प्यास कम बुझ पाती है...किसी की ज्यादा....और किसी को तो पानी ही नहीं मिलता....जीने के लिए....मगर वो भी जीता है....जिन्दगी ख्वाब है एक भूखे की रोटी का....!!
                    हाँ ख्वाब और रूह का  सम्बन्ध तो है ही....ख्वाब उन्हीं चीज़ों के देखे जाते हैं अक्सर....जो है ही नहीं....और आदमी में रूह का होना भी एक ख्वाब ही है....क्यूंकि वो तो आदमी में है ही नहीं.....!!

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

प्रबंधन के कुछ गैर-पारिभाषिक एवं गैर प्रचलित सूत्र !!


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

प्रबंधन के कुछ गैर-पारिभाषिक एवं गैर प्रचलित सूत्र !!

प्रिय भाई ,
              तुम्हें मेरा अत्यधिक प्रेम, 
               आज तुमसे कुछ बातें शेयर करने को दिल चाह रहा है,किन्तु आमने-सामने देर तक कुछ कहा जाना और सामने वाले का उसका सूना जाना अब बड़ा दुरूह हो चुका है,इसलिए यह पत्र तुम्हें लिख रहा हूँ कि तुम बड़े इत्मीनान से समय लेकर पढ़ सको,और जब अवसर मिले इसे पढ़कर प्रबंधन के कुछ गुर सीखो और मज़ा यह है कि प्रबंधन के विषय में इस तरह की बातें प्रबंधन की किसी पुस्तक में नहीं बतायी जाती ,मगर मुझे आशा है कि आने वाले दिनों में मेरे इस पत्र को प्रबंधन की पुस्तकों में एक पाठ की तरह शामिल कर लिया जाएगा .
                भाई मेरे,(1) हम जैसे व्यापारी लोग अपने व्यापार के लिए जिस तरह के लोगों से काम लेते हैं,वो ज्यादातर बेहद अकुशल,अशिक्षित और बेहद गंदगी वाले माहौल से आने वाले विवश और गरीब लोग होते हैं,जिन्हें यह पता नहीं होता कि कर्मठता किस चिड़िया का नाम है और किस तरह का आचरण करके आप मालिक की नज़र में एक "अच्छे मजदूर"बन सकते हो,हाँ यह जरूर है कि अक्सर वे ईमानदार अवश्य होते हैं,जिसके कारण वे अपने मालिक के विश्वासपात्र बन जाते हैं (बेशक यह विश्वास कभी भी इस स्तर पर नहीं पहुँच पाता कि मालिक अपना गल्ला उनके हवाले करके पेशाब करने भी जाए,और मैं इसका अपवादस्वरूप हूँ.
                इसलिए भाई मेरे इन्हें काम सिखाना और इनसे  काम लेना कुछ समय तक बहुत कठिन होता है.इनमें कुछ लोग बेहद समझदार भी होते हैं बाकी ज्यादातर तो गैर-समझदार ही,मगर इसका मतलब यह नहीं कि वो मूर्ख ही हों,जैसा कि मालिक लोग समझते हैं ! किन्तु धरती का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जहां कि गालियों,लताड़ों,दुत्कारों द्वारा किसी को कोई काम समझाया या सिखाया जा सकता होओ,जहां भी ऐसा होता है,वे मानवीयता की दृष्टि से बेहद शर्मनाक जगहें होती हैं,जिनका मैं कतई कायल नहीं.आपके पास किसी भी गैर-कुशल मजदूर-स्टाफ का रहना आपके एक टीचर होने की डिमांड करता है,ये आप ही हैं,जिसने एक गैर कुशल स्टाफ या मजदूर को दो वजहों से चुना है,
                  एक,या तो आप अपने काम के एवज में उसे यथोचित- उचित या कहूँ कि ज्यादा मेहनताना दे पाने में सक्षम नहीं है,या फिर अपनी कमाई के लालच में उसका शोषण करना चाहते हैं,मगर दोनों ही हालातों में उस मजदूर का चुनाव सिर्फ-व्-सिर्फ आपका और आपका है और इसके लिए आप उस गैर-कुशल अकुशल,अशिक्षित व्यक्ति को ज़रा-सा भी दोष नहीं दे सकते,जिसे आपने अपनी मर्जी,विवशता या लालच के कारण चुना है,इसलिए यह आपका प्रथम एवं अनिवार्य कर्तव्य है कि अब आप उसकी समुचित टीचिंग करें,ना कि रैंगिंग .
                दूसरा,समूची धरती पर मजदूरों या स्टाफों के रूप में छोटे-छोटे बच्चों का उपयोग होता है,जो मेहनत की दृष्टि से उचित,बल्कि अत्यधिक(उनकी क्षमता से काफी अधिक) और मेहनताने की दृष्टि से कमतर तथा प्रताड़ना की दृष्टि से लाज़वाब जान पड़ते हैं,जिन्हें पशुओं से भी बदतर खटाकर बात या लात से प्रताड़ित किया जाता है!अब आप ज़रा यह सोच कर तो देखो कि जिस तरह आप उस बच्चे,जो मजबूरी के मारे अपना घर छोड़कर खेलने-खाने की उम्र में आपके पास काम करने आता है तो उसकी आपसे यह अपेक्षा तो कतई नहीं रहती होगी कि आप उससे पशुओं जैसा व्यवहार करोगे,बल्कि वह जो बच्चा जो किन्हीं भी कारणों से आपके पास है,उसकी अपेक्षा और ईच्छा आपसे अपनी मेहनत के बदले प्यार और सम्मान पाने की होती होगी,जैसा कि आप खुद अपने लिए चाहते हो अपने खुद के काम के एवज में !तो आप यह तो सोचो कि जो आप अपने लिए चाहते हो उससे किसी दूसरे को क्यों वंचित करना चाहते हो,या कर ही डालते हो,महज इसलिए कि आप शिक्षित हो हुनरमंद हो ??तो आप अपना हुनर उसे सिखाओ ना,अपने हुनर या ज्ञान को खुद तक सिमित रखना दुनिया का सबसे बड़ा अहंकार और स्वार्थ है !(इस नाते मैं ये भी मानता हूँ कि व्यापार में जिसे मोनोपोली कहते हैं,वह भी इसी श्रेणी का अहंकार,स्वार्थ और मानवता को शर्मसार करने वाला है,जिसे यह "सभ्य" मनुष्य अपने साथ पता नहीं कैसे चिपटाए हुए है और करते हुए भी वह खुद को सभ्य कहता है !
                बगैर उचित टीचिंग के दुनिया अच्छी नहीं बनायी जा सकती और इसके लिए यह आवश्यक है कि आप किसी भी किस्म के दुराग्रह और कुसंस्कार से दूर हों !अगर आप किसी भी तरह से अपने लिए एक अच्छा समाज चाहते हैं तो आपको हर हालत में खुद को बेहतर,और बेहतर,और बेहतर बनाना ही होगा !आप खुद विगलित रहते हुए कुछ भी अच्छा चाहने का हक़ तक नहीं रखते !
               तीसरा,धरती पर मालिक की जात एकमात्र ऐसी जात है,जो खुद को सदैव बिलकुल सही समझती है,अपने ज्ञान को सही समझती है,मगर अपने ज्ञान को आप सही समझो,यहाँ तक तो ठीक है,मगर दूसरे के ज्ञान को कमतर या तुच्छ समझना यह कहाँ की शरीफी है ?और इसी कारण मैंने देखा है कि कई बार स्टाफ के उचित परामर्श को मालिक महज इसीलिए नहीं मानता कि वह परामर्श एक स्टाफ का है !कई बार स्टाफ का प्रैक्टिकल अप्रोच मालिक की अपेक्षा ज्यादा समीचीन होता है,मगर मालिक उसकी बात ठीक से सुनता तक नहीं अपने मालिक होने के अहंकार या ठसके के कारण....मगर बात यहीं तक जा रूकती तब भी गनीमत थी,मगर होता तो यहाँ तक है कि अपनी उस थेथरई के कारण पनपी समस्याओं को भी नहीं समझते,या समझने का प्रयास तक नहीं करते,दूसरे शब्दों में अपनी गलतियों को ना मानकर भविष्य की बेहतरी के लिए कोई सबक नहीं सीखते !और इस तरह मालिक और-नौकर का रिश्ता बेहद कटुतम होता चला जाता है और मैं चाहता हूँ मेरे भाई,तुम ऐसे कतई ना बनो !!
                 अपने द्वारा किया गया बेहतर से बेहतर काम भी अपने द्वारा की गयी स्वभाववश या अनजानेवश गलतियों के कारण नकारा हो जाता है !मालिक कम-से-कम यह तो सोचे कि हो सकता है कि बेशक खुद वही सही हो,मगर अपने सही होने के कारण उसे किसी को प्रताड़ित करने का हक़ तो नहीं मिल जाता ना !उसे अपने सही होने के तर्क को अपने स्टाफ की भाषा में ही अपने स्टाफ को समझाना होगा,ना फटकारपूर्ण शब्दों में और गलत लहजे का इस्तेमाल करते हुए वह स्टाफ को कुछ कहे !मगर जहां मालिक ही गलत हो वहां स्टाफ क्या करे,किन शब्दों में मालिक को समझाए !!उसके पास तो मालिक वाली भाषा या मालिक वाला संस्कार तो नहीं ना..!!(यहाँ यह जोड़ देना मैं उचित समझता हूँ कि तमाम संस्कार और शिक्षितता के बावजूद मालिक व्यवहार कु-संस्कार वाला करे तो उसे कौन सी कैटेगरी में रखा जाए ??) 
                 इसलिए मेरे भाई जिसे तुम स्टाफ को सर चढ़ाना समझते हो वो मेरे लिए मेरी मानवता है,मेरा संस्कार है ,मेरा चरित्र है और वही सही भी है,ऐसा मेरा मानना है,चाहे इसे कोई माने या ना माने !इस पत्र को पढ़कर मैं आशा करता हूँ कि शायद तुम गैर-कुशल,अशिक्षित श्रमिकों से उचित व्यवहार करना सीखो !इसके लिए सदैव यह ध्यान रखना होगा कि वह तो जो है,सो है,मगर आप तो कुशल हो ना,आप तो शिक्षित हो ना,आप तो संस्कारवान हो ना,आप तो कुशल हो ना !!तब आप अपनी गैर-समझदारी क्यों प्रदर्शित करते रहते हो,आप मालिक हो ना,तो आप मालिक ही रहो ना व्यवहार के निचले तल तक जाकर अपनी तौहीन क्यूँ करवाते हो ?स्टाफ के साथ बगैर उसकी गलतियों के भी उसके साथ गलत व्यवहार करना,स्टाफ को किसी भी बात को भर्त्सनापूर्ण शब्दों में समझाना,यह मालिकियत नहीं नहीं मालिकियत का कुसंस्कार है,जिसे अगर मगर त्याग दे दुनिया के सभी मजदूरों का अपने मालिकों के साथ सुन्दरतम रिश्ता कायम हो सकता है,बाकी ऊपर वाला तो सबका मालिक है ही.....है ना भाई !!
                  पुनश्चः,ये बातें मैं तुम्हें इसलिए लिख सका क्यूंकि मैं समझता हूँ कि तुममे पर्याप्त समझदारी है इन बातों को समझते हुए खुद को तदनुरूप ढाल लेने की,क्योंकि अपने काम में पारंगत होते हुए भी दुनियादारी में गैरव्यवहार-कुशलता बहुत बार आपको नीचा दिखाती हैं,और आप बेहतर होते हुए भी उंचाईयों को नहीं छू पाते ,क्योंकि काम में पारंगतता एक अलग बात है,और अपना आचरण एक दूसरी बात !!आप काम में पारंगत होते हुए भी आचरण में पर्याप्त मधुरता ना होने के कारण उचित मुकाम हासिल करने में अक्षम हो सकते होओ मगर काम में अपारंगत होते हुए भी सुमधुर आचरण से उन्हीं उंचाईयों को प्राप्त कर सकते हो !
                 दुनिया का सबसे बड़ा अस्त्र है मीठी बोली या मधुर आचरण !! 
             

धरती पर बढ़ेंगे अभी और बलात्कार !!


धरती पर बढ़ेंगे अभी और बलात्कार !!

               शीर्षक पढ़कर चौंकिए नहीं क्योंकि तरह-तरह के अध्ययनों के अनुसार जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनसे दो बातें स्पष्टया साबित होती हैं,एक,धरती पर पुरुष-स्त्री का लिंगानुपात असामान्य रूप से असंतुलित होता जा रहा है,दूसरा,संचार के तमाम द्रुतगामी साधनों की बेतरह उपलब्धता के कारण आदमी जल्द ही व्यस्क होता जा रहा है,आदमी जहां पूर्व में इक्कीस-बाईस में,फिर सत्रह-अट्ठारह में,फिर पंद्रह-सोलह में और अब तेरह-चौदह वर्ष की उम्र में ही व्यस्क हो रहा है,जबकि लड़कियों में यह उम्र बारह-तेरह की निम्नतम स्तर को छु गयी है !!
                इसका एक मात्र कारण आधुनिक युग के संचार के साधन हैं,जहां अब कुछ भी गोपन नहीं है,पहले जहां किसी प्रकार की कामुक सामग्री बहुत कठिनता से प्राप्त हुआ करती थी,वो भी छपी हुए रूप में,जिसे छिपाना अत्यंत असाध्य हुआ करता था,जिससे ऐसी सामग्री को घर में लाने से कोई किशोर डरा करता था,मगर अब किशोरों की तो क्या कहिये,बच्चे-बच्चे के हाथ में मोबाईल के रूप में चौबीसों घंटे उपलब्ध रहने वाला ऐसा साधन उपलब्ध है,जिसके साथ कोई भी किस चीज़ का आदान-प्रदान कर रहा है,कोई नहीं जान सकता,क्योंकि देख-पढ़ लेने के बाद डीलीट करने के ऑप्शन के कारण आप कुछ भी चिन्हित नहीं कर सकते हो,दूसरी और किशोरों के हाथ में इंटरनेट नामक एक ऐसा हथियार आ चुका है,जिसे वो अपनी क्लास छोड़-छोड़ कर चाहे कितनी ही बार इस्तेमाल करने जा सकते हैं,जाते हैं.मगर अब तो यह मोबाईल में भी चौबीस घंटे उपलब्ध है!!आपने अपने बच्चों के हाथों में ऐसी चीज़ें उपलब्ध करवा दी हैं,जिसका उपयोग अब वो अस्सी से नब्बे प्रतिशत तक अपना यौवन बढाने के लिए ही करते हैं,आप भी अब खुश हो जाईये कि अब आप अपने ही बच्चों का कुछ भी नहीं "उखाड़"सकते!!ऐसे शब्दों का उपयोग मैं इसी कारण कर रहा हूँ,क्यूंकि मैं देख पा रहा हूँ,कि आगे क्या तस्वीर उभर रही है,जिसे बदल पाना हमारे बस के बाहर है दोस्तों !!
                धरती पर पुरुष-स्त्री के असंतुलित होते जाने के बरअक्श आप इस तस्वीर को सामने रखिये तो आपको इसकी भयावहता का अंदाजा लगेगा.एक तरफ कामुक होते किशोर तो दूसरी तरफ घटती स्त्री की आबादी,इन दोनों को एक साथ रखकर देखिये तो बात साफ़ हो जाती है.धरती पर पहले ही पुरुष द्वारा स्त्री पर जबरन किये जाने बलात्कारों की सीमा भयावहतम सीमा को पार कर चुकी है,जो अब रोजाना लाखों की संख्या में है,ऐसे में धरती पर आने वाले दिनों में स्त्री की अनुपलब्धता किस स्थिति को जन्म देने वाली है,इसकी कल्पना भी नहीं जा सकती !!बच्चे जब जल्द युवा होंगे तो उन्हें जल्द ही स्त्री भी चाहिए होगी,और क़ानून या समाज की उम्र की बंदिशें उन्हें यह करने से रोकेंगी,तब ऐसे में क्या होगा??
                  दोस्तों प्रकृति में जो भी कुछ है,वो एक-दुसरे के जीवन-यापन की ही एक भरपूर श्रृंखला है.इस श्रृंखला की अनेकानेक इकाईयों को आदमी अपनी कारस्तानियों के कारण मेट चुका है,मगर अब अपनी ही जाति की व्याप्त बुराईयों की वजह से स्त्री को माँ के पेट में ही नष्ट कर देता है,यह उसकी इस "थेथरई"का ही परिचायक है,कि हम अपने भीतर की बुराईयों को नहीं मिटाएंगे,जिसके कारण हम स्त्री को अजन्मा ही मार डालते हैं,बल्कि स्त्री को ही मार डालेंगे!!सच भी है,ना रहेगा बांस,ना बजेगी बांसूरी...!!
         मगर ओ पागल धरतीवासियों मगर इसी बांसूरी को बजाने के कारण ही तुम्हें सुख भी मिल रहा है,साथ ही धरती भी चल रही है,और तुर्रा यह कि यह सुख तुम्हें शायद चौबीसों घंटे भी मिले तो तुम अघा ना पाओ,तब तो ओ पागल लोगों इस बात को तुम समझो कि इस सुख को पाने के लिए,जिसके लिए ना जाने तुम कितने ही तरह के धत्त्करम करते चलते हो,ना जाने कितने झूठ बोलते हो,धूर्ततायें करते हो,जिस सुख की खातिर तुम्हारे मनीषी,साधू-पादरी और ना जाने कौन-कौन से महापुरुष अपना सम्मान विगलित कर गए!!उसके अनिवार्य माध्यम को मिटा देना तुम्हारी कौन सी समझदारी है,यह तो बताओ !!??
                 प्रकृति में हर-एक चीज़ के होने का कोई-ना-कोई कारण है,उसकी उपादेयता है तथा उसके ना होने से व्यापक हानि भी है,स्त्री के सम्मान-वम्माम को तो मारो गोली,वह तो पता नहीं आदमी कब सीख पायेगा,किन्तु एक जैविक तत्व होने के नाते भर से भी स्त्री की उपादेयता को आदमी अगर ईमानदारी-पूर्वक  समझ भर भी ले तो वह इस अपने लिए इस अनिवार्य जैविक के ना होने से होने वाले नुक्सान को समझ पाने में भी सक्षम नहीं है क्या यह सभ्य-सु-संस्कृत सु-शिक्षित आधुनिक इन्सान..??!!अगर हाँ,तो समस्या का निदान नहीं ही है,ऐसा ही समझिये...मगर मैं तो यह जोड़ना चाहूंगा कि ऐसे आदमी को गधा कहना गधे का भी अपमान होगा....आप क्या कहते हैं दोस्तों....??कुछ आप भी कहिये ना..??    

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गुरुवार, 29 सितंबर 2011

अंदाज ए मेरा: बुआ जी की विदाई: साहित्‍य वाचस्‍पति श्री पदुमलाल पुन्‍नालाल बख्‍शी की द्वितीय कन्‍या श्रीमती सरस्‍वती देवी श्रीवास्‍तव का पिछले दिनों निधन हो गया। सरस्‍वत...

मंगलवार, 27 सितंबर 2011


हे दुर्गा नमो नमः महेश्वरी 

हे काली,महाकाली दुर्गेस्वरी !
तुझको नमन करता हुआ 
तेरा आह्वान करता हुआ 
करता हूँ मैं करबद्ध प्रार्थना 
इस जग के सारे असुरों का 
फिर से संहार कर दे ओ माँ !!
मेरे बस में है ये ना 
किसी और के बस में ही है 
ये तो बस अब ओ माँ 
केवल तेरे बस में ही है 
धरती के संग खेलने वालों का 
मानवता का संहार करने वालों का 
कमजोरों का रक्त पीने वालों का 
बेबसों का चीर हरने वालों का 
वंचितों की पीर बढाने वालों का 
हर इक ऐसे असुर का अब 
सिर्फ तुम ही कर सकती हो दमन
या फिर कुछ ऐसा कर दो कि 
सच्चे लोगों में शक्ति भर दो
जो इन सबका नाश कर सके 
ऐसे लोगों को धरती में भर दो  
हे दुर्गा नमो नमः महेश्वरी 
हे काली,महाकाली दुर्गेस्वरी !!