लोकतंत्र...!! हा...हा...हा...हा....क्यूँ मजाक करते हैं साहब !!
जब से सामाजिक मुद्दों पर सोचना-लिखना शुरू किया,या यूँ कहिये कि जबसे समाज के बारे समझने की उम्र हुई,तब से एक मुद्दा सदैव ज्वलंत मुद्दा बना रहा है मन में,वो यह है,भारत के लोग,उसकी समस्याएं,भारत का लोकतंत्र,लोकतंत्र के कारण पैदा हुई समस्याएँ और लोगों की मनोवृति के कारण लोकतंत्र में पैदा हो रही समस्याएं !!
भारत के अ-शिक्षित,अर्द्धसाक्षर लोकतंत्र में जो तरह-तरह की विचित्रताएं हैं,उसके कारण इसे लोकतंत्र की संज्ञा देना वैसे तो लोकतंत्र शब्द की अवज्ञा है मगर अब जब यह मान ही लिया गया है कि भारत में लोकतंत्र ही है,तो मानना ही पडेगा !!मगर सच्चाई तो यह है कि भारत के शासकों की प्रवृति सदा से शाश्वतरूपेण राजशाही की ही रही है और आज भी है और लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं का ताना-बाना भी राजशाही भरा ही है और बजाय किसी आम सहमति के तमाम जगहों पर संस्थाओं में जायज या नाजायज ढंग से काबिज लोगों के काबिल या नाकाबिल वंशज ही मनोनीत कर दिए जाते हैं और ना सिर्फ आम जनता बल्कि संस्था के कार्यकर्ता भी उस व्यक्ति को पूजते रहते हैं,जिसे दरअसल कुछ विवेकवान लोगों या संस्थाओं द्वारा चोरी-छिपे या सरे-आम गरियाया भी जाता रहता है !!
भारत का लोकतंत्र दरअसल यहाँ के हरेक आम या ख़ास की एक ऐसी बपौती है,जिसकी कि कोई परिभाषा नहीं हैं मगर जिसके लिए जो जो भी कह रहा है वो सही है,जो भी कर रहा है वो भी सही है और हर एक कोई इतना सही है कि दूसरे को गलत साबित करने के लिए वो किसी भी तरह की हिंसा की सारी हदें पार करने तक को तैयार है और दरअसल यहीं से इस लोकतंत्र की विचित्रताएं प्रारम्भ होती हैं,जो विचित्रताओं से ज्यादा भयानक हैं, वीभत्स हैं,क्रूर हैं !!जिसे कतई लोक का तंत्र नहीं कहा जाना चाहिए मगर इसे महान की संज्ञा जो देनी ठहरी,इसलिए इसे विश्व का विशालतम लोकतंत्र कहा जाता है,मगर मेरे जैसों के लिए यह सदा से कौतूहल का विषय बना हुआ है वो भी इतना ज्यादा कि इस पर कोई ग्रन्थ ही लिख मारूं मगर लिखने बोलने और सत्संग करने से अगर लोग बदल जाया करते तो ऋषियों-महर्षियों की जितनी बड़ी फ़ौज भारत नाम के इस देश में हो चुकी और उससे भी कई गुनी आज के दौर में हुई और फली-फूली जा रही है,भारत कब का स्वर्ग बन चुका होता,होना चाहिए था...मगर सारे नामी-गिरामी स्वर्गवासी हो चुके,हुए जा रहें हैं,भारत का कुछ बनता ना बिगड़ता है,निजी उपलब्धियों को भले आप कुछ भी नाम दे दो,उससे भारत की अधिसंख्य जनता का एक धेला भी नहीं कुछ होता !!
यह बड़ा विचित्र नहीं है कि आप किसी देश को प्रेम तो करते होंओं मगर उस प्रेम की एक भी शर्त पूरी नहीं करते सिवाय एक यहाँ पैदा होने के और मजा यह कि उस पर आपका कोई हक़ ना था !!
अगर आप किसी भी देश में पैदा होने को लेकर अगर उसका गुणगान करते हो,या फिर उसकी निंदा या आलोचना जो भी करते हो,मगर दरअसल आप उसके हक़ या बेहतरी के लिए क्या करते हो?कुछ करते भी हो या नहीं !!अजीब हाल है यहाँ का एक रात को तो सब चोरी करते हैं और सुबह से शाम तक सब चिल्लाते हैं कि चोर-आया-चोर आया !!और चोर कौन है यह पता ही नहीं चलता....और अगर पता चल भी पाता है तो उसमें भी बरसों अदालती कार्यवाहियों के बाद ससम्मान छूट जाते हैं,क़ानून को धत्ता बताकर....और गलती से किसी को दंड मिल भी जाए तो इसे भारत की समझ लीजिये !!
हम भारतीयों में बहुतेरे तो अकर्मण्य हैं,काहिल हैं और रही सही कसर कुछ सरकारी योजनायें पूरी कर देती हैं हमें और अधिक अकर्मण्य बना डालने के लिए ! मगर तुर्रा यह कि हम यह मानते भी नहीं और अगर हमें कोई काहिल कह भी दे तो फिर देखिये कि क्या होता है...! अनपढ़ लोग तो जाहिल-गंवार कहे जाते हैं,मगर पढ़े-लिखों का आचरण देखकर भी ऐसा नहीं लगता कि किसी भी सूरत में उनसे कमतर कहे जाने योग्य हैं,मगर मित्रों,अनपढ़ तो अनपढ़ है ही ,आपने भी पढ़-लिखकर कौन सा बड़ा तीर मार लिया...अगर आपका आचरण भी ऐसा ही है तो आप तो उससे भी गए-बीते हुए ना ?मगर कोई आपको ऐसा कहकर तो देखे !! मगर तमाम अ-संस्कार.कु-संस्कार, अ-लोकतांत्रिक, अ-सामाजिक और सभी तरह के सामाजिक कर्तव्यों से च्यूत रहकर भी आप अहंकार की भाषा का उपयोग करें,यह लाजिमी तो नहीं लगता मगर सवाल तो यह है कि यह आपको बतलाये-समझाए कौन ?
आखिरी बात यह है अगर कोई बेहतर ना कर पाए तो शायद चल भी सकता है,मगर इसके ठीक उलट बुरा किया जाए तो इसका परिणाम भी निश्चित रूप से बुरा ही होगा,होगा ना...??तो भारत में दरअसल यही होता आ रहा है,हम सब अपनी-अपनी जगह पर अपनी-अपनी औकात के अनुसार भारत को लूट रहें हैं,लूटे जा रहें हैं!!कोई सीधा बन्दूक के बल पर लूट लेता है,जिसे हम डकैती कहतें हैं,तो कोई सरकारी नियमों में डकैती कर डकैतों से भी कई गुना की डकैती करते चले आ रहें हैं,मगर उनका कोई माई का लाल बाल भी बांका नहीं कर पाता क्योंकि उन्होंने बन्दूक नहीं उठायी हुई है और यह वीभत्स खेल दरअसल जनता के तमाम तरह के हितों की अनदेखी करके नहीं बल्कि उन्ही का हिस्सा हजम करके किया जा रहा है,और मजा यह कि किसी को राई-रत्ती भर भी शर्म नहीं आती !!
और दरअसल यही वो जगह है जहां पर कि सवाल नहीं उठता,वो सवाल है शर्म का,जो दुर्भाग्य से हम सबने खो दी है,किसी ने ज्यादा तो किसी ने कम और जिसने जितनी ज्यादा शर्म खोयी है वो उतना ही ज्यादा वैभवशाली है और मजा यह भी है हमहीं लोगों ने उसे प्रतिष्ठा भी प्रदान भी की हुई है !! दोस्तों,आदमी अगर अपना कोई आचरण खो दे तो शायद उसे राह पर लाया भी जा सकता है मगर आदमी अगर अपनी शर्म ही खो दे तो वो एक पत्थर हो जाता है,जिस पर माथा पटकने से अपना माथा फूटने के सिवाय कुछ हासिल नहीं होता...!!और हम भारतीय अब वही पत्थर हैं जिस पर हमारा लोकतंत्र आज अपना सर पीट रहा है...माथा धुन रहा है,मगर मजाल है कि हमें कोई फर्क भी पड़े !!