दरअसल स्त्रियाँ ही तय करती हैं बहुत कुछ,
मगर वो सोचती ही नहीं कि उन्हें तय करना चाहिए कुछ....
अगर स्त्री सचमुच अगर तय कर ले कि ये दुनिया बदलनी है,
तो सचमुच बदला जा सकता है...सबका-सब...सब कुछ
मगर स्त्री बरसों से इस धोखे में है,
कि वो कमजोर है बहुत
और कुछ भी बदल नहीं सकती वो
स्त्री अपनी ताकत का अंदाजा
देवियों के अनेक रूपों को देखकर भी,
जिनकी पूजा किया करती हैं वो रोज ब रोज,
कभी कर नहीं पाती खुद की गरिमा का अहसास...
और रोज-ब-रोज सजती-संवरती है पुरुष के लिए
और इस तरह बजाय अपनी ताकत के
वो देती हैं अपनी मादकता का अहसास...
अगर संसार की सारी स्त्रियाँ या कुछ ही स्त्रियाँ
सिर्फ एक क्षण को भी यह सोच लें
कि वो रसीली-छबीली या सेक्सी ना होकर
एक अहसास भी हैं मानवता के बदलाव का
कोमलता के साथ-साथ संवेदना की गहराई का...
तो दुनिया बदल सकती है एकदम से
पता है कितने समय में...??
बस एक पल में.....!!
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